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January 18, 2016



ग़ज़ल
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हर इक फ़नकार से इक रोज़ फ़न मुंह फेर लेता है
ग़ज़ल भी रूठ जाती है, सुख़न मुंह फेर लेता है
बहुत मुमकिन है आईना बने हमराज़ दुनिया का
मगर मुझसे तो ये अनजान बन, मुंह फेर लेता है
उठाये जाओ सारे नाज़ इसके दोस्तों वरना
ज़रा सी बेरुख़ी से ही बदन मुंह फेर लेता है
पुराना है ये अपनी प्यास से बर्ताव दरिया का
हमारी ओर बढ़ कर दफ़्अतन* मुंह फेर लेता है
ख़िज़ाँ* की खुश्कियाँ जब रास आ जाती है फूलों को
बहारों की रूतों से भी चमन मुंह फेर लेता है